
जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और निबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में इनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। निरन्तर दुःख और चिन्ताओं से जूझते हुए अपने जीवन के मात्र 47 वर्ष देकर ही ये इस संसार से विदा हो गए।
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
प्रसादजी का जन्म सन् 30 जनवरी 1890 ई० में काशी के ‘सुँघनी साहू’ नाम के वैश्य परिवार में हुआ था। प्रसादजी के पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसादजी का बाल्यकाल बहुत सुख के साथ व्यतीत हुआ। प्रसादजी ने बाल्यावस्था में ही अपनी माता के साथ पुष्कर, उज्जैन, धाराक्षेत्र, ओंकारेश्वर और ब्रज तीर्थों की यात्रा कर ली थी। यात्रा से लौटने के पश्चात् इनके पिता का देहांत हो गया। पिता की मृत्यु के चार वर्ष पश्चात् इनकी माता का भी देहांत हो गया।
प्रसादजी के पालन और शिक्षा का प्रबन्ध उनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी ने किया था। सर्वप्रथम प्रसादजी का नाम ‘क्वींस इंटर कॉलेज’ में कराया गया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई में इनका मन नहीं लगा, इसलिए इनकी शिक्षा का इंतजाम घर पर ही कराया गया। घर पर ही शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे। प्रसादजी को प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति लगाव था। ये साहित्यिक पुस्तकें पढ़ा करते थे और कभी-कभी कविता भी लिखा करते थे। प्रसादजी स्वतन्त्र रूप से काव्य-रचना के मार्ग पर बढ़ने लगे। तभी उनके बड़े भाई शम्भूरत्नजी का देहांत हो गया। इससे प्रसादजी को बहुत सदमा लगा। इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तथा व्यापार भी समाप्त हो गया। पिताजी के समय से ही इन पर ऋण-भार चला आ रहा था। ऋण से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने अपनी सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति बेच दी। ऋण के भार से इन्हें मुक्ति तो मिल गई, परन्तु इनका जीवन संघर्षों और झंझावातों में ही चक्कर खाता रहा।
यद्यपि प्रसादजी बड़े संयमी थे, किन्तु संघर्ष और चिन्ताओं के कारण इनका स्वास्थ्य खराब हो गया। सन् 15 नवम्बर 1936 ई० को रोग ने इनके शरीर पर अपना पूर्ण अधिकार कर लिया और ये सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए।
जयशंकर प्रसाद की काव्यगत विशेषताएँ
प्रसादजी में साहित्य-सृजन की प्रतिभा जन्मजात विद्यमान थी। मात्र 47 वर्ष के अल्प जीवनकाल में इन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह हिन्दी-साहित्य की अमूल्य निधि है। नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध और काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण साहित्यिक योग्यता का परिचय दिया। ‘कामायनी’ जैसे विश्व-स्तरीय महाकाव्य की रचना करके प्रसादजी ने हिन्दी-साहित्य को अमर कर दिया। इन्होंने काव्य, साहित्य, कला आदि विषयों पर अनेक महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखे तथा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी कई अद्वितीय रचनाओं का सृजन किया। इनकी रचनाओं में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारधाराओं की तुलनात्मक समीक्षा और आदर्श व यथार्थ का अनुपम समन्वय देखने को मिलता है। प्रसादजी ने अपनी रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग अधिक किया
भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय भावना, भारत के अतीतकालीन गौरव आदि पर आधारित ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’ और . ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसे प्रसाद-रचित नाटक विश्वस्तरीय साहित्य में अपना बेजोड़ स्थान रखते हैं। काव्य के क्षेत्र में इन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय देते हुए हिन्दी-काव्य को नए आयाम दिए। ये छायावादी काव्यधारा के प्रवर्तक कवि थे। – प्रसादजी हिन्दी-साहित्य के स्वनामधन्य रत्न हैं। इन्होंने काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक सभी विधाओं में हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया।
जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ
प्रसादजी अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी-साहित्य-जगत् को सदैव के लिए आलोकित कर दिया। सुविख्यात साहित्यकार रमेशचन्द्र शाह ने जयशंकर प्रसाद के सम्बन्ध में लिखा है, “प्रसाद का दर्शन भारतीय इतिहास प्रवाह में अर्जित, गँवाई गई और फिर से प्राप्त नैतिक व सौन्दर्यात्मक तथा व्यावहारिक व रहस्यात्मक अन्तर्दृष्टियों का समन्वय करने का साहित्यिक प्रयास है।
काव्य :- कामायनी, लहर, आँसू, झरना और चित्राधार।
उपन्यास :- तितली, कंकाल, इरावती।
कहानी :- आँधी, इन्द्रजाल, छाया, प्रतिध्वनि आदि। उपन्यास-तितली, कंकाल, इरावती।
नाटक :- संज्जन, कल्याणी-परिणय, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, प्रायश्चित्त, जनमेजय का नागयज्ञ, विशाख, ध्रुवस्वामिनी।
निबन्ध :- काव्यकला एवं अन्य निबन्ध। उपन्यास तितली, कंकाल, इरावती।
जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली
प्रसादजी ने अपनी भाषा का प्रयोग संस्कृत के शब्दों से किया है। भावों और विचारों के अनुकूल शब्द उनकी भाषा में सहज रूप से आ गए हैं। प्रसादजी की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग नहीं के बराबर हैं। विदेशी शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा में नहीं मिलता।
विचारात्मक शैली :- इस शैली का विकास प्रसादजी के निबन्धों में हुआ है। यह शैली अत्यधिक गम्भीर और चिन्तनमयी है। विचारों की गहनता के कारण कहीं-कहीं इस शैली में अस्पष्टता भी आ गई है।
अनुसन्धानात्मक शैली :- यह शैली प्रसादजी के उन निबन्धों में मिलती है, जो गवेषणात्मक विषयों पर लिखे गए हैं। यह शैली भी अधिक गम्भीर और विचारपूर्ण है तथा इसमें वह दुरूहता नहीं है, जो विचारात्मक शैली में मिलती है।
इतिवृत्तात्मक शैली :- इस शैली के दर्शन प्रसादजी के उपन्यासों में मिलते हैं। यह शैली अधिक सरल और स्पष्ट है। इस शैली में प्रायः व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है। .. .
चित्रात्मक शैली :- इस शैली का विकास उन स्थानों पर हुआ है, जहाँ प्रसादजी ने भावों के द्वन्द्वात्मक चित्रों का अंकन किया है। रेखाचित्रों और प्रकृति-चित्रों में भी यह शैली मिलती है।
भावात्मक शैली :- यह प्रसादजी की प्रमुख शैली है। इस शैली के दर्शन उनकी सभी रचनाओं में मिलते हैं। यह शैली अधिक सरस और मधुर है। इसमें स्थान-स्थान पर काव्यात्मक शब्दों और कल्पनाओं के आकर्षक चित्र मिलते हैं।
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साहित्य में स्थान
बाँग्ला-साहित्य में जो स्थान रवीन्द्रनाथ ठाकुर का और रूसी साहित्य में जो स्थान तुर्गनेव का है, हिन्दी-साहित्य में वही स्थान जयशंकर प्रसाद का है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और तुर्गनेव की भाँति प्रसादजी ने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। प्रसादजी कवि भी थे और नाटककार भी, उपन्यासकार भी थे और कहानीकार भी। इसमें सन्देह नहीं कि जब तक हिन्दी-साहित्य का अस्तित्व रहेगा, प्रसादजी के नाम को विस्मृत किया जाना सम्भव नहीं हो सकेगा।